कामिनी की कामुक गाथा (भाग 76)

पिछली कुछ कड़ियों में आपलोगों नें पढ़ा कि अपने नये मकान निर्माण कार्य में कार्यरत कामांध मजदूरों के समूह में, अपनी संभ्रांत छवि को त्याग कर उन्हीं के समकक्ष एक निम्नवर्गीय स्त्री की तरह शामिल हो कर अपने तन की भूख मिटाने हेतु बिछती चली गयी। उनके मनोनुकूल ढल कर, उनकी इच्छानुसार, प्रथमतय: दिखावे का बेबस विरोध और तत्पश्चात स्वयंमेव स्वेच्छा से उन मजदूरों की घृणित, कुत्सित कामेच्छा का शिकार बन कर पिसती, नुचती मगन मन आनंदविभोर, उनकी हरेक चेष्टाओं और कामक्रीड़ाओं में सुख प्राप्त करती रही। जोखिम भरा किंतु रोमांचक, नया अनुभव। अपनी निकृष्ट अवस्था का जरा भी मलाल नहीं, न ही कोई पश्चाताप या क्षोभ। बेशरम तो हूं ही मैं।

उस रविवार, पूरा दिन उनके साथ घटिया से घटिया हरकतों में शामिल हो, पूरी छिनाल बनी रही। बड़ा मजा आया। उन मजदूरों के इस समूह के सृजन से लेकर समूह के निर्माण के बारे में जानकर अच्छा लगा। उनके बिंदास सोच, तालमेल और आपसी व्यवहार से मैं प्रभावित हुई।

इस दिन के बाद तो सारे कामगरों को मानो मेरे तन से खेलने का लाईसेंस मिल गया। मैं कमीनी कम थोड़ी न हूं। उन्हें कृतार्थ करने में जरा भी संकोच नहीं करती थी। मेरी मनोवांछित मुराद भी तो पूरी हो रही थी। अपने तन की भूख ऐसे भी मिटाने की नौबत आएगी, इस बात की कल्पना भी नहीं की थी मैंने। खैर, मैं संतुष्ट थी। इस रविवार के करीब एक हफ्ते बाद की घटना है।

उस दिन सोमवार था। शाम को ऑफिस से घर लौटी तो गेट से ठीकेदार, आर्किटेक्ट हर्षवर्धन दास साहब निकल रहे थे। मैं उनका अभिवादन करते हुए पूछी,

“और दास बाबू, सब ठीक चल रहा है न?”

“हां मैडम, और सब तो ठीक चल रहा है, लेकिन मुझे लग रहा है आप मुझसे नाराज हैं।” उनके चेहरे पर मायूसी छाई हुई थी।

“क्यों, आपको ऐसा क्यों लग रहा है?” मैं थमक कर खड़ी हो गयी।

“अब मैं क्या बताऊं, बाकी आप खुद समझदार हैं।”

“मैं कुछ समझी नहीं।” मैं बोली।

“अब इतनी भी भोली न बनिए।”

“सचमुच मैं समझी नहीं आपकी बात का मतलब।”

“कैसे बोलूं?” वे हिचकिचा रहे थे।

“खुल के बोलिए ना।” मेरा दिल धड़क रहा था। मैंने अपनी समझ से दास बाबू के साथ न तो कोई बदसलूकी की थी, न ही बदजुबानी। व्यवहार भी सामान्य था। फिर? उनकी नजरें ऊपर से नीचे मुझ पर दौड़ रही थीं। हसरत भरी नजरें।और सब कुछ धीरे धीरे स्पष्ट होता चला गया। मैंने भवन निर्माण स्थल की ओर दृष्टि फेरी, तो पाया कि सलीम और बोदरा हमारी ओर ही देख रहे थे। उधर कांता भी कुटिलता से मुस्कुरा रही थी। सब समझ गयी मैं, फिर भी अनजान बनी पूछ बैठी, “देखिए दास बाबू, अगर मुझसे अनजाने में कोई गलती हुई है तो मैं माफी चाहती हूं।”

“अनजाने में नहीं, जान बूझ कर।” उनकी नजरें अब मेरे उन्नत उरोजों पर टिक गयी थीं। मेरे तन में वही चिरपरिचित सनसनाहट तारी होने लगी।

“क्या?”

“आपने सबको बांट दिया और मुझे भूल गयीं। हमसे कोई गलती हो गयी है क्या?”

“क्या बांटी मैं?”

“सब बोल रहे हैं, खिलाई हैं आप उनको।”

“क्या खिलाई हूं?” अब सब कुछ स्पष्ट हो गया। इन कमीनों नें दास बाबू को भी बता दिया। फिर भी बनती रही।

“अब वो भी बता दूं?”

“हां।” देखती हूं क्या बोलता है?

“खुल के बोलूं? अगर गलत हूं तो सॉरी।”

“आप बोलिए तो।”

“सब लोगों को आपनी जवानी का प्रसाद खिलाया और हमें नहीं। यह तो सरासर अन्याय है। है ना?” अब उनके होंठों पर कामुकता नृत्य कर रही थी।

“हाय राआआआआम।” मैं आंखें बड़ी बड़ी कर शर्मिंदा होने का ढोंग करने लगी।

“तो यह सच है?” वे खुश हुए कि उनका कथन सत्य था।

“त त त त तो इन लोगों नें बता दिया आपको?” मैं नजरें झुका कर बोली।

“हां, तभी तो बोल रहा हूं। मुझसे ऐसी क्या गलती हुई कि मुझे भूल गयीं आप?” मेरी हालत देख कर उनकी आंखें चमक उठीं। फंसी यह चिड़िया जाल में।

“अ अ अ असल में, असल में, मममममुझे नननननहींईंईंईं पता था क क क कि आप इस तततततरह कके हैं।” मैं हकलाने लगी।

“अब पता चल गया ना?”

“हूं” मैं जमीन पर नजरें गड़ाए बोली।

“तो?”

“ततयतो कककक्या?”

“क्या इरादा है? खाने की उम्मीद करूं?”

“अब मैं क्या बोलूं? पता तो चल ही गया है आपको। मना करने की अवस्था में हूं क्या?” मेरी आवाज में लाचारी थी। छि:, क्या सोच रहा होगा मेरे बारे में? इतनी घटिया औरत हूं मैं? इतनी गिरी हुई, कि इन मजदूरों के समक्ष बिछ जाती हूं अपनी वासना की पूर्ति के लिए।

“ऐसी लाचारी भरी आवाज में मत बोलिए।”

“तो कैसे बोलूं?”

“खुले दिल से बोलिए।”

“बोली तो।”

“ऐसे नहीं।”

“फिर कैसे?”

“खुल के, खुशी खुशी।” वे कुत्सित मुस्कान के साथ बोले।

अब मुझे झल्लाहट होने लगी। ड्रामा करना मुश्किल होने लगा। मैं बेशरम छिनाल तो थी ही, बोलने पर आऊं तो रंडियां भी मुंह छुपाने लगें। फिर भी बमुश्किल नियंत्रण के साथ बोली, “हां बाबा हां। जब मन हो खा लीजिएगा। बस? या और तरीके से बोल़ू।”

“बस बस, इतना ही सुनना था। तो हमें प्रसाद मिलना पक्का ना?” पैंट के ऊपर से ही अपने लिंग को सहलाते हुए बोले।

“ओ बाबा हां तो बोल चुकी।” कहती हुई तेज कदमों से घर में दाखिल हुई। सभी कामगरों की नजरें मेरा पीछा करती रहीं। मन ही मन सभी हंस ही रहे होंगे हरामी। दिल मेरा धाड़ धाड़ धड़क रहा था। सबके सब एक ही थैले के चट्टे बट्टे हैं। हर्षवर्धन दास जी पचास पार के एक मोटे तोंदियल, लेकिन करीब पांच फुट ग्यारह इंच ऊंचे कद्दावर व्यक्ति थे। सामने ललाट से लेकर बीच के सारे बाल उड़ चुके थे। सिर्फ किनारे किनारे के बाल रह गये थे। वे भी आधे पके आधे सफेद। पतली, करीने से तराशी गयी मूछें थीं उनकी।सांवले रंग का आकर्षक व्यक्तित्व था उनका। उनको देखकर कोई भी नहीं सोच सकता था कि वे इस तरह के व्यक्ति होंगे। लेकिन आज तक मुझ जितने मर्दों से पाला पड़ा था उनमें से कई ऐसे व्यक्तियों को मैं जानती थी जिनकी शरीफ सूरत के पीछे हवस का दानव सर छुपाए पड़े थे। मौका मिला नहीं कि शरीफ चेहरों के नकाब उतार कर दानव प्रकट होने में तनिक भी देर नहीं करता था। दास बाबू भी उन्हीं में से थे। वैसे तो सलीम और उसके सहयोगी कामगरों के मुख से सुन चुकी थी कि रूपा और सुखमनी नामक रेजाएं उनकी पसंदीदा रेजाएं थीं जो उनकी रखैल की तरह थीं। लेकिन मुझपर भी उनकी कुदृष्टि पड़ेगी, यह मैं नहीं सोच पाई थी। औरतों के रसिया थे यह तो पता था लेकिन मुझ पर उनकी नीयत डोलेगी, यह नहीं सोचा था। शायद मन के किसी कोने में थी यह बात, जो इन हरामियों के द्वारा उस दिन वाली घटना और उसके बाद लगातार चलते हमारे बीच इन वासना के खेल का पता चलने से प्रकट हो गया। अब मैं सोच रही थी कि न जाने कब का कार्यक्रम था उनका।

अधिक उधेड़बुन में नहीं रहना पड़ा मुझे। मैं अभी फ्रेश हो कर चाय पी ही रही थी कि दास बाबू का कॉल आ गया।

“हल्लो जी।” दड़क उठा मेरा दिल।

“जी कहिए।” लरजती आवाज में बोली मैं।

“क्या हो रहा है?”

“कुछ नहीं।”

“फिर आज मिलते हैं।”

“कककककहां?” मैं इतनी जल्दी यह आशा नहीं कर रही थी।

“हमारे घर में।”

“कहां है आपका घर?” मैं आशंकित थी।

“लोआडीह।”

“लोआडीह में कहां?”

“ओके ओके मैं गाड़ी भेज देता हूं।”

“हहहहां यययह ठीक रहेगा। लेकिन मैं ज्यादा देर नहीं रुकुंगी।”

“आप आईए तो। नहीं रोकेंगे ज्यादा देर।” नहीं रोकेंगे मतलब? एक वचन से बहुवचन कैसे हुआ? और लोग भी हैं क्या? मैं सशंकित हुई। मगर पूछी नहीं। दस मिनट में ही एक कार आ लगी हमारे दरवाजे पर। कॉल बेल बजा। मैं हरिया को बोली,

“सुनिए”

“बोलो।” किचन से निकलते हरिया बोला।

“मैं जरा लोआडीह से होकर आ रही हूं।”

“लेकिन अभी?”

“हां, जरूरी काम है।”

“करीम को भेज दूं?”

“नहीं, उन्होंने कार भेजा है।”

“किसने?”

“क्लाईंट नें।” बता नहीं सकती थी कि कौन सा क्लाईंट। उधर दास बाबू मुझपर डुबकी लगाने को तैयार बैठे होंगे। क्या बताती, पसरने जा रही हूं? ऐसा लग रहा था मानो मैं कोई कॉलगर्ल हूं, जिसे ग्राहक नें बुलाया है। ड्राईविंग सीट पर एक मुच्छड़, दढ़ियल, मोटा आदमी बैठा हुआ था। मुझे देख कर खींसें निपोरने लगा।

“आईए मैडम।” वह कार के सामने वाला दरवाजा खोल कर बोला। मैं चुपचाप कार में बैठ गयी। कार चल पड़ी। लोआडीह चौक से कुछ आगे जाकर दाहिनी ओर एक छोटे से मॉल के बगल के खुले गेट में कार प्रविष्ट हुई। मैंने देखा कि वहां चार पांच ऊंचे ऊंचे फ्लैट थे। कार सीधे जाकर तीसरे फ्लैट के सामने रुकी। ड्राईवर नें कार का दरवाजा खोलते हुए कहा, “आईए मैडम।”

मैंने देखा यह एक आठ मंजिला फ्लैट था। कार पार्क करके ड्राईवर मेरे पास आया। वह करीब पचास साल का, खलीता पैजामा पहना हुआ काफी लंबा, मोटा तगड़ा, गुंडा टाईप व्यक्ति था। मैं तो उसके सामने बिल्कुल बच्ची लग रही थी। खैर मुझे उससे क्या लेना देना था। ड्राईवर ही तो था।

“चलिए।” उसने कहा। एक गंदी सी रहस्यमयी मुस्कान थी उसके होंठों पर। अब ड्राईवर था उसका तो इन सब बातों का राजदार तो अवश्य होगा। ऐसी बातें इन लोगों से छिपती कहां हैं। किसी दलाल की तरह माल सप्लाई करता होगा। मैं यंत्रचालित गुड़िया की तरह उसके पीछे पीछे चली। फर्स्ट फ्लोर पर ही सीढ़ियों की बांयी ओर सामने दो दरवाजे थे। उनमें से दाहिनी ओर के दरवाजे का डोर बेल बजाया उसने। तत्काल ही दरवाजा खुला और सामने कुत्सित मुस्कान लिए दास बाबू खड़े थे। एक काली टी शर्ट और पैजामे में थे वे।

“वेलकम मैडम।” दरवाजे से हटते हुए उसने कहा। मैं अंदर प्रविष्ट हुई। मेरे अंदर आते ही दास बाबू नें दरवाजा बंद कर दिया।

“आपकी फैमिली?” पूछी मैं। मैं पशोपेश में थी।

“नहीं है?”

“मतलब?”

“मायके गयी है बीवी। तभी तो जैसे ही आपके बारे में पता चला, बुला लिया।” वे बोले। साले, मानो मौका ही खोज रहे थे। अब आगे क्या? मैं सोचने लगी। वैसे आज मुझे मूड नहीं था, लेकिन मजबूरी थी। दास बाबू को मना करना ठीक नहीं लग रहा था। हमारे भवन निर्माण का कार्य उन्हीं की देख रेख में चल रहा था। जब यह राज खुल ही गया था कि मैं उनके मजदूरों संग रंगरेलियां मना रही हूं तो किस मुंह से मना करती। वासना की भूख नें मुझे कितनी सस्ती बना दिया, निकृष्ट, किंतु भगवान का दिया रूप लावण्य तथा आकर्षक देह, जिसमें वासना की अदम्य भूख नख शिख, छलछला कर भर दिया था ऊपरवाले नें। औरतों के रसिया मर्दों की दृष्टि में ऊपरवाले का नायाब तोहफा। तभी तो अब दास बाबू मुझे नोचने को ललायित हो उठे थे। जबतक उन्हें मेरे बारे में पता नहीं था, तबतक तो बड़े शरीफ बने फिर रहे थे। कमीने कहीं के।

खैर, अब तो चिड़िया खेत चुग गयी थी। अब जो होना है हो। मेरी नजरें फ्लैट का मुआयना करने लगीं। यह बड़ा सा, करीब चौदह बाई सोलह का बड़ा सा बैठक हॉल काफी सजा हुआ था। लंबाई उत्तर दक्षिण थी। सामने और बांयी ओर लंबे लंबे गद्देदार सोफे थे जिनके सामने एक बड़ा सा चौकोर सेंटर टेबल था। यही बैठक हॉल आगे जा कर अंग्रेजी का एल बनाता हुआ पश्चिम की ओर बढ़ कर डाईनिंग हॉल बन गया था। बैठक के पूरब की दीवार पर टीवी पैनल था जिसके बीचोबीच 53″ का टी वी लगा हुआ था। यह तीन बेडरूम वाला फ्लैट था, जिसका करीब क्षेत्रफल करीब 1800 वर्ग फीट होगा। पश्चिम की ओर एक बाल्कोनी थी।

“तो मेरी जान।” न जाने कब दास बाबू मेरे पीछे आ खड़े हुए थे, मुझे बांहों में भर कर बोले।

“ये ये ये क्या कर रहे हैं?” मैं उनकी मजबूत बांहों में छटपटाती बोली।

“वही कर रहे हैं जिसके लिए तू यहां आई है।” आप से सीधे तू पर आ गया वह।

“ददददेखिए मैं ऐसी नहींं हूं।” उनकी बांहों से छूटने की असफल कोशिश करती हुई खोखली आवाज में बोली।

“तो फिर कैसी हो? हां हां बताओ कैसी हो? हमारी रेजाओं जैसी? या फिर कोई रंडी, कॉलगर्ल? जो एक फोन आने पर ग्राहक के पास दौड़ी चली जाती हैं? ऐसा ही हुआ ना? बताओ बताओ।” बिना कपड़े उतारे ही मुझे नंगी कर चुका था और मैं शरम से पानी पानी हो गयी। मेरी हालत उससे छिपी नहीं थी। वह एक हाथ से मेरी कमर पकड़ा था और दूसरे हाथ से मेरे स्तनों को सहला रहा था। मैं निरुत्तर थी उसके कथन से। मैं सलवार कमीज में थी। मेरी चुन्नी फर्श पर कब गिरी पता नहीं। वह समझ चुका था कि चिड़िया हाथ में आ चुकी थी। फड़फड़ा तो सकती है लेकिन भाग नहीं सकती है।

“मगर फिर भी…..”

“अब यह अगर मगर न ही करो तो अच्छा है।” अब वह मेरी गर्दन को चूमने लगा था। मेरे तन बदन में शोला भड़कने लगा। कसमसा उठी मैं। मेरे नितंबों के मध्य सख्त डंडे की चुभन अनुभव कर रही थी।

“न न न नहींईंईंईंईंई।” बड़ी कमजोर आवाज थी मेरी।

“नहीं की बच्ची, सारे मिस्त्रियों और कुलियों के लंड खा कर मुझी को नहीं नहीं बोल रही है साली लंडखोर।” अब उसकी आवाज में तल्खी मिस्रित कामुक भेड़िए की गुर्राहट थी।

“आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह,” उसके हाथों मेरे उरोज बुरी तरह मसले जा रहे थे। अबतक जो सुस्ती, आलस्य मेरे तन में थी, अनमना सा भाव मन में था, शनैः शनैः तिरोहित हो रहा था। मन मस्तिष्क में कामुकता के पिशाच की तंद्रा टूट चुकी थी। वासना का जहरीला सर्प फन उठा चुका था। मैंने खुद को उस वासना के तूफान में बहने के लिए छोड़ दिया। मेरी आंखों में वासना के लाल डोरे उभर आए थे। सारे शरीर में चिंगारियां सुलगने लगीं थीं। मेरे चेहरे के भाव दासबाबू को और उत्साहित कर रहे थे।

“उफ, अब और नहीं।” दास बाबू नें मुझे उठा कर सामने काऊंटर बेसिन के पास ला खड़ा किया। काऊंटर बेसिन के सामने एक बड़ा सा दर्पण था, जिसपर हमारे अक्स परिलक्षित हो रहे थे। मेरे कंधे से ऊपर दास बाबू का बेताब चेहरा झांक रहा था। भूखे भेड़िए सी शक्ल हो गयी थी उनकी। आंखों की लालिमा बता रही थी कि उनकी उत्तेजना चरम पर थी। मैंने दर्पण में देखा, मेरे कमीज के ऊपरी बटन खुल चुके थे और मेरे स्तन अपनी पूरी शिद्दत से कसी हुई ब्रा से छलक पड़ने को बेताब थे।

“हाय रा्आ्आ्आ्आम।” मैं उनकी बांहों में बंधी अपनी अस्त व्यस्त हालत को देख पानी पानी हो उठी। विरोध बेमानी था। समपर्ण के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। वह अपनी मनमानी किये जा रहा था और मैं पिघलती जा रही थी। तभी उन्होंने मेरी कमीज रुपी व्यवधान को अवांछित वस्तु की मानिंद क्षण भर में उतार फेंका। अब मैं कमर से ऊपर सिर्फ ब्रा में थी। उस हालत में मेरी खूबसूरत देह की छटा देख वह और बेकरार हो उठा।

“उफ, ये खूबसूरती। गजब। अब ये ब्रा क्यों? इसे भी हटा, देखूं तो, मेरे मजदूरों को क्या हाथ लगा है?” कहते हुए मेरे उन्नत उरोजों को ब्रा से मुक्त कर दिया। फटी की फटी रह गयीं उसकी आंखें। मुंह खुला का खुला रह गया।

“ओह, ये नजारा, ऐसी चूचियां, सुभान अल्लाह। ऐसे खूबसूरत बदन को उन घटिया कुत्तों नें चोदा? साली रंडी, हम मर गये थे क्या लंडखोर?” दास बाबू खुद पर खीझ रहे थे या मेरी चूचियों को दबोच कर खुन्नस निकाल रहे थे।

“आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह, नहीं्ईं्ईं्ईं्ईं्ईं्ई, आह्ह्ह्ह मांआंआंआंआं, ऐसी जबरदस्ती तो न करो आह, दर्द होता है।” मैं दर्द से बिलबिला उठी।

“जबर्दस्ती कर रहा हूं? मां की लौड़ी दर्द होता है? रंडी की औलाद?”

“हाय दैया, ये क्या बोल रहे हैं?”

“ठीक ही तो बोल रहा हूं। इस खूबसूरती को चखने का पहला हक मेरा था। साली जूठन चूत।”

“गाली तो न दीजिए।”

“कुत्ती कहीं की, सौ चूहे खा कर बिल्ली चली हज को? गाली न दूं तो क्या करूं? आरती उतारूं तेरी?” गालियां देता हुआ मुझे नंगी करता चला गया। एक एक करके मेरे तन से वस्त्र केले के छिलके की तरह अलग होते गये और अंततः मैं नंगी हो गयी। पूर्णतः नग्न। मादरजात नग्न। दर्पण में खुद की नग्न देह को इस तरह एक कामुक भेड़िए के पंजों में देखकर मैं सचमुच लज्जा से दोहरी हुई जा रही थी। दास बाबू तो स्तब्ध रह गये मेरी नग्न काया की छटा देख कर। उनकी आंखों की चमक साफ साफ बता रही थीं कि उन्हें एक नायाब हीरा हाथ लग गया है।

“परी है रे परी तू। ये हूर कहाँ लंगूरों के बीच जा फंसी।” अब वे मेरी चिकनी योनि सहलाते हुए बोल रहे थे। चुम्बनों की झड़ी लगा बैठा था वह मेरी गर्दन पर, मेरे गालों पर और मंत्रमुग्ध मेरा चेहरा घूमा, चेहरा ऊपर उठा, संकेत स्पष्ट था, मेरे होठों से चिपक गये उनके होंठ। विभोर हो उठी, गनगना उठी मैं। तड़प उठी थी मैं। पागल हो रही थी। मेरी कमीनी फकफकाती योनि से रस का श्राव आरंभ हो गया था और इस तरह के संभोग हेतु तैयार शारीरिक संकेतों से ऐसे औरतखोर मर्द भला कैसे अनभिज्ञ रह सकते हैं? वासना के भड़कते शोलों की तपिश में तपती, तड़पती, बेसाख्ता एक लंबी आह निकल पड़ी मेरे मुंह से। सब समझ गया था वह, कि अब समय आ चुका है कामक्रीड़ा के अगले चरण का। उनकी भी उत्तेजना का पारावार न था। आनन फानन अपने कपड़े उतारने लगा वह। देखते ही देखते हो गया मादरजात नंगा। जैसे जैसे उसके कपड़े उतरते गये, उसका मर्दाना शरीर नामुदार होता गया। सीना और पेट घने बालों से अटा पड़ा था। जो तोंद पूरे वस्त्रों में ढंका छिपा था, वह छलक कर बाहर आकर मुझे मुंह चिढ़ा रहा था। भीमकाय शरीर बेपर्दा हो चुका था मेरे सम्मुख। मोटी मोटी सशक्त बांहें, चोड़ा चकला सीना, मजबूत कंधे, मोटी मोटी जंघाएँ और और और बा्आ्आ्आ्आप रे्ए्ए्ए्ए्ए बा्आ्आ्आ्आप, तोंद के नीचे लटकता लिंग, नहीं नहींं, यह किसी सामान्य मानव का लिंग तो कत्तई नहीं था, या फिर मानव का था ही नहीं। पशु, वो भी गधे प्रजाति पशु के लिंग से भिन्न नहीं था। भय से मेरी घिग्घी बंध गयी।

“नहींईंईंईंईंईंईंईंई।”

“क्या नहीं?” दास बाबू समझ गये मेरे भय को।

“ये्ए्ए्ए्ए्ए्ए कककक्या्आ्आ्आ है?”

“क्या है? क्या मतलब? तुम्हीं बताओ क्या है?” चुटकी ले कर मजा ले रहा था।

“इतना्आ्आ्आ्आ बड़ा्आ्आ्आ्आ्?” मेरी आंखें फटी की फटी रह गयीं। बाप रे बाप, करीब चार इंच मोटा। लंबाई अवश्य नौ इंच के करीब होगी, लेकिन मोटाई? उफ्फ भगवान, कहां आ फंसी थी मैं? हलाल होना तय था।

“इतना बड़ा क्या?” वह मुस्कुरा रहा था मेरी हालत पर।

“ये।”

“ये क्या?”

“ल ल ल ल लं…..”

“हां हां बोलो बोलो।”

“लं लं लंड।” मैं मुंह छुपा कर बोली।

“वाह, बोली और क्या खूब बोली। हाय हाय मेरी छम्मकछल्लो, तेरे जैसी रांड भी ऐसे शरमाती है? वाह रे नौटंकीबाज लंडखोर औरत। ऐसा लंड नहीं देखी है कभी?”

“नननननहींईंईंईं।” हकला कर बोली।

“झूठ।”

“नहीं, ससससच्च।”

“मंगरू और हीरा का लंड लेकर भी ऐसा बोल रही है।” वह मेरे करीब आता हुआ बोला।

“नहीं, करीब न आना। मंगरू और हीरा का भी इतना मोटा नहीं था।” मैं एक एक कदम पीछे हटती हुई बोली। मेरी नजरें उसके तन्नाए हुए लिंग पर ही जमी थींं।

“मोटा हुआ तो क्या हुआ।” वह आगे बढ़ता जा रहा था।

“फट जाएगी मेरी।”

“तुम्हारी क्या?”

“मेरी चचचचू…..”

“हां हां बोलो बोलो चचचचू…. क्या?” वह मजा लेता हुआ बोला।

“धत”

“अय हय, बोल बोल।”

“चचचचचूऊऊऊऊत।” मैं पीछे हटती गयी और वह आगे आता गया। मैं पीछे हटते हुए सेंटर टेबल से उलझी और धप्प से टेबल पर ही उलट गयी। “आह, पास मत आईए।”

“आऊंगा आऊंगा, और करीब, और करीब आऊंगा, तू हटने के चक्कर थी न? बचने के चक्कर में थी न? क्या हुआ? गिरी न? पता है क्यों गिरी? मेरे लिए गिरी। चुदने के लिए गिरी।” उसकी वासना से ओत प्रोत नजरें मेरे नग्न जिस्म से चिपकी हुई थीं। इससे पहले कि मैं संभलती, बाज की तरह झपटा मुझ पर और अपनी बांहों में जकड़ कर चुम्बनों की बरसात कर बैठा।

“नननननहींईंईंईं प्लीज।”

“ऐसे दिल तोड़ने वाली बातें न बोल। डर मत पगली, बड़ा मजा आएगा।”

“नहीं, आपका बहुत मोटा है।”

“तो क्या हुआ?”

“दर्द होगा मुझे।”

“क्यों?”

“फट जाएगी मेरी।”

“फटेगी नहीं, फैलेगी।”

“दर्द तो होगा ना।”

“मजा भी तो आएगा।”

“नहीं, डर लगता है।”

“चुप हरामजादी, एकदम चुप नौटंकीबाज। चल चोदने दे। बहुत ड्रामा किए जा रही है तब से।” घुड़की दे बैठा मुझे और सेंटर टेबल से उठाया और घसीटकर फिर काऊंटर बेसिन के दर्पण के सामने ले आया।

“नहीं प्लीज। आपका लंड गधे जैसा है।” मैं गिड़गिड़ा रही थी।

“तो गधा ही जैसा चोदूंगा। तुझे अपनी गधी बनाऊंगा।”

“नहींईंईंईंईंईंईंईंई।” मगर मेरी आर्तनाद कौन सुनता वहां। उसनें मुझे पीछे से पकड़ रखा था। उसका दानवी लिंग मेरी गुदा पर दस्तक दे रहा था। उसनें मुझे जबरदस्ती काऊंटर बेसिन के स्लैब पर झुका दिया। अब इस स्थिति में मेरी गुदा के साथ साथ मेरी योनि भी उसके लिंग के प्रवेश के लिए उपयुक्त स्थिति में थी। इसी अवसर का तो इंतजार था उसे। मेरी ना नुकुर और विरोध को अनसुना करते हुए अपने गधे सरीखे लिंग के सुपाड़े को मेरी योनिद्वार पर साध दिया। स्पर्श मात्र से ही कांप उठी मैं। “नहीं प्लीज नहीं, मर जाऊंगी।” किसी भी पल हो सकता था हमला। वह पल बहुत करीब था

“मर साली कुत्ती, ले मर मां की चूत।” कहते कहते मेरी कमर को दबोचे एक करारा धक्का मारा।

“आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह।” मैं पीड़ा से चीखी।

“चिल्ला रंडी चिल्ला। खूब चिल्ला।” एक और धक्का मारा उसनें।

“ओ्ओ्ओ्ओह्ह्ह्ह मांआंआंआंआं।” फट रही थी मेरी चूत। दर्द असहनीय था।

“चुप्प छिनाल चुप्प।” एक और धक्का, और हो गया काम तमाम। मेरी योनि को सीमा से बाहर फैलाता हुआ उसका विकराल लिंग पूरा का पूरा समा चुका था। जहां वह जीत की खुशी में मगन बेरहम दरिंदा बन मुझे दबोचे हुम्मच हुम्मच कर दे दनादन ठोंकने लगा, वहीं मैं असहनीय पीड़ा झेलती बेबसी की हालत में समर्पण को वाध्य, गपागप खाने लगी उसका असामान्य, आतंक का पर्याय लिंग। कुछेक मिनट उसी तरह पीड़ामय संभोग को झेलती झेलती कब अपनी पीड़ा भूल आनंद का अनुभव करने लगी पता ही नहीं चला। मेरी योनि पर्याप्त रूप में फैल कर उसके अविश्वसनीय वृहद लिंग हेतु सुगम मार्ग बन चुकी थी। सारी सुस्ती शरीर की, सारी अनिच्छा मन की, शनैः शनैः तिरोहित होती गयी और जैसे मेरे अंदर नवजीवन का संचार हो गया। तन मन तरंगित होने लगा। मेरे अंदर वासना की भूखी पिशाचिनी जागृत हो कर इस कामुक औरतखोर की कामक्रीड़ा में सक्रिय सहयोग को प्रोत्साहित करने लगी। खुद पर से मेरा नियंत्रण समाप्त होता जा रहा था और अंततः मैंने हां ना हां ना के इस झंझावत से मुक्त होने का निर्णय ले ही लिया। कुछ उनकी कामुक हरकतों का असर था और कुछ मेरे अंदर की सुषुप्त कामुक कामिनी की तंद्रा भंग होने का असर, मेरे तन पर से मेरे मन का नियंत्रण छूमंतर हो गया था। मैं खुल कर खेलने लगी। खुल कर मजा लेने लगी। खुल कर खाने लगी गपागप, उसके लिंग को अपनी योनि में। मेरी कमर खुद ब खुद चलने लगी, उछलने लगी।

“आह्ह, आह्ह, ओह्ह्ह्ह्ह्ह, ओह्ह्ह्ह्ह्ह, इस्स्स्स, इस्स्स्स, आह्ह्ह्ह, आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह।” ये सिसकियां और कामुकता से भरपूर आहें उबली जा रही थीं मेरे लबों से।

“आह्ह्ह्ह आह्ह्ह्ह, ओह्ह्ह्ह्ह्ह, ओह्ह्ह्ह्ह्ह, वाह वाह, अब आ रहा है, आ रहा है न मजा।” मुझे कुत्ते की तरह दबोचे, चोदने में मशगूल दास बाबू आनंदित हो कर बोले।

“हां, ओह्ह्ह्ह्ह्ह, हां रज्ज्ज्जा, ओह मेरे रसिया, आह्ह्ह्ह आह्ह्ह्ह, आ रहा है, ओह्ह्ह्ह्ह्ह बड़ा मजा आ रहा है।” मैं अपनी असंयमित सांसों को संयमित करती बोली। दास बाबू को और भला क्या चाहिए था। मेरी चूचियों को पीछे से बड़ी ही बेदर्दी से अपने पंजों से दबोच कर गचागच चोदने लगे।

“नाईस, दैट्स लाईक अ गुड गर्ल (बढ़िया, यह एक अच्छी लड़की जैसी बात हुई), अब मजा दे और मजा ले, ले ले ले, आह, आह।” वे खुशी से बोले।

“अब नहीं आह, अब अच्छी लड़की नहीं उफ्फो्ओ्ओ्ह्ह, बुरी लड़की बोल बेटीचोद आह्ह्ह्ह, बुरी औरत बोल मादरचोद ओह मा्ं्मां्मां्आं्आं्आं, चोद ही डाला तो बुरचोदी बोल ओह्ह्ह्ह्ह्ह, कुत्ते की तरह चोदते समय कुत्ती बोल साले कुत्ते आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह।” अब मैं पूरे रंग में आ चुकी थी। दास बाबू नें शायद इसी की कल्पना की थी, जो साकार हो गया था।

“साली रंडी्ई्ई्ई्ई्ई, अब आई असली रंग में लंडखोर कुतिया, यही तो चाहता था हरामजादी। अब ले, ये ले, ये ले, हुं हुं हुं हुं हुं।” अब धमाल मच गया था।

“हां साले चोदू, चोद लौड़ू चोद, चोद चूत के चटोरे चोद, चोद झांट के झोले चोद।” मैं न जाने क्या क्या बोले जा रही थी। थपाक थपाक की आवाज आ रही थी। यह आवाज थी उसके झोले जैसे लटके बड़े बड़े अंडकोश के मेरी चूत के ऊपर पड़ने वाली थपेड़ों की। करीब आधे घंटे तक वह मुझे नोचता रहा, खसोटता रहा, झिंझोड़ता रहा, निचोड़ता रहा और मैं स्वर्गीय सुख में डूबी, नुचती रही, छिलती रही, झिंझुड़ती रही, निचुड़ती रही। उस भीषण चुदाई का अंत भी उतना ही आनंददायक था। उन्होंने मेरी चूचियों को पूरी शक्ति से भींच कर अपना मदन रस उंडेलना आरंभ किया। गरमागरम लावा का पान कर मेरी कोख निहाल हो उठी। मेरी योनि उनके विशाल लिंग को चूस रही थी। एक एक कतरा चूस कर ही मानी मेरी लंडखोर चूत।

“आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्आ्ह्ह्ह्ह्ह।” वह खलास होकर भैंस की तरह डकारने लगा।

“ऊ्ऊ्ऊ्ऊ्ऊ्ऊ मांआंआंआंआं।” मैं भी गयी्ई्ई्ई्ई्ई्ई। ओह्ह्ह्ह्ह्ह क्या ही आनंददायक स्खलन था वह मेरा। थक कर निढाल हो गयी। तभी दास बाबू का लिंग भीगे चूहे की तरह सिकुड़ कर ‘फच्च’ की आवाज के साथ मेरी योनि से बाहर आया। मैं अपने स्थान में खड़ी न रह पायी। वहीं पास के सोफे पर लुढ़क कर निढाल हो गयी। दास बाबू भी किसी भैंसे की तरह लुढ़क गये।

“बड़ा मजा आया।” दास बाबू बोले।

“मुझे भी।”

“ऐसी औरत जिंदगी में पहली बार मिली।”

“मुझे भी ऐसा मर्द पहली बार मिला।”

“वाह रे रानी, सच?”

“हां राजा सच्ची।”

“तो अब तू मेरी लंडरानी बन गयी ना?”

“हां मेरे राजा, मेरे चूत के लौड़े।”

“हाय, तेरी इसी अदा को तो देखना चाहता था।”

“तो देख लिया?”

“हां। पसंद आया।” कहकर मुझे बांहों में भर कर चूम लिया। मैं भला कहाँ पीछे रहती। लिपट गयी अमर बेल की तरह उधकी मोटी, भैंस जैसी नग्न देह से और चुम्बन दे बैठी, तृप्ति की, प्रसन्नता की, समर्पण की। निहाल हो उठे दास बाबू। फिर मैं अपने कपड़े पहन, मुदित मन, पुनः मिलते रहने के वादे के साथ विदा हुई।

आगे की कथा अगली कड़ी में।

रजनी

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